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विष्णो॒र्नु कं॑ वी॒र्या॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजां॑सि। यो अस्क॑भाय॒दुत्त॑रं स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viṣṇor nu kaṁ vīryāṇi pra vocaṁ yaḥ pārthivāni vimame rajāṁsi | yo askabhāyad uttaraṁ sadhasthaṁ vicakramāṇas tredhorugāyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विष्णोः॑। नु। क॒म्। वी॒र्या॑णि। प्र। वो॒च॒म्। यः। पार्थि॑वानि। वि॒ऽम॒मे। रजां॑सि। यः। अस्क॑भायत्। उत्ऽत॑रम्। स॒धऽस्थ॑म्। वि॒ऽच॒क्र॒मा॒णः। त्रे॒धा। ऊ॒रु॒ऽगा॒यः ॥ १.१५४.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:154» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले १५४ एकसौ चौपनवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर और मुक्तिपद का वर्णन करते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (पार्थिवानि) पृथिवी में विदित (रजांसि) लोकों को अर्थात् पृथिवी में विख्यात सब स्थलों को (नु) शीघ्र (विममे) अनेक प्रकार से रचता वा (यः) जो (उरुगायः) बहुत वेदमन्त्रों से गाया जाता वा स्तुति किया जाता (उत्तरम्) प्रलय से अनन्तर (सधस्थम्) एक साथ के स्थान को (त्रेधा) तीन प्रकार से (विचक्रमाणः) विशेषकर कँपाता हुआ (अस्कभायत्) रोकता है उस (विष्णोः) सर्वत्र व्याप्त होनेवाले परमेश्वर के (वीर्याणि) पराक्रमों को (प्र वोचम्) अच्छे प्रकार कहूँ और उससे (कम्) सुख पाऊँ वैसे तुम करो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अपनी आकर्षण शक्ति से सब भूगोलों को धारण करता है, वैसे सूर्य्यादि लोक, कारण और जीवों को जगदीश्वर धारण कर रहा है। जो इन असंख्य लोकों को शीघ्र निर्माण करता और जिसमें प्रलय को प्राप्त होते हैं, वही सबको उपासना करने योग्य है ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरमुक्तिपदवर्णनमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यः पार्थिवानि रजांसि नु विममे य उरुगाय उत्तरं सधस्थं त्रेधा विचक्रमाणोऽस्कभायत्तस्य विष्णोर्वीर्याणि प्रवोचमनेन कं प्राप्नुयां तथा यूयमपि कुरुत ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णोः) वेवेष्टि व्याप्नोति सर्वत्र स विष्णुस्तस्य (नु) सद्यः (कम्) सुखम् (वीर्याणि) पराक्रमान् (प्र) (वोचम्) वदेयम् (यः) (पार्थिवानि) पृथिव्यां विदितानि (विममे) (रजांसि) लोकान् (यः) (अस्कभायत्) स्तभ्नाति (उत्तरम्) प्रलयादनन्तरं कारणाख्यम् (सधस्थम्) सहस्थानम् (विचक्रमाणः) विशेषेण प्रचालयन् (त्रेधा) त्रिभिः प्रकारैः (उरुगायः) य उरुभिर्बहुभिर्मन्त्रैर्गीयते स्तूयते वा ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - यथा सूर्यः स्वाकर्षणेन सर्वान् भूगोलान् धरति तथा सूर्यादींल्लोकान् कारणं जीवांश्च जगदीश्वरो धत्ते य इमानसंख्यलोकान् सद्यो निर्ममे यस्मिन्निमे प्रलीयन्ते च स एव सर्वैरुपास्यः ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तांत परमेश्वर व मुक्तीचे वर्णन आहे. या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - जसा सूर्य आपल्या आकर्षणशक्तीने संपूर्ण भूगोलाला धारण करतो तसे सूर्य इत्यादी लोक, कारण व जीव यांना जगदीश्वर धारण करीत आहे. जो या असंख्य लोकांना निर्माण करतो, ज्याच्यात प्रलय होतो त्याचीच सर्वांनी उपासना केली पाहिजे. ॥ १ ॥